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घुटन अज़ाब-ए-बदन की न मेरी जान में ला - अकबर हैदराबादी कविता - Darsaal

घुटन अज़ाब-ए-बदन की न मेरी जान में ला

घुटन अज़ाब-ए-बदन की न मेरी जान में ला

बदल के घर मिरा मुझ को मिरे मकान में ला

मिरी इकाई को इज़हार का वसीला दे

मिरी नज़र को मिरे दिल को इम्तिहान में ला

सख़ी है वो तो सख़ावत की लाज रख लेगा

सवाल अर्ज़-ए-तलब का न दरमियान में ला

दिल-ए-वजूद को जो चीर कर गुज़र जाए

इक ऐसा तीर तू अपनी कड़ी कमान में ला

है वो तो हद्द-ए-गिरफ़्त-ए-ख़याल से भी परे

ये सोच कर ही ख़याल उस का अपने ध्यान में ला

बदन तमाम उसी की सदा से गूँज उठे

तलातुम ऐसा कोई आज मेरी जान में ला

चराग़-ए-राहगुज़र लाख ताबनाक सही

जला के अपना दिया रौशनी मकान में ला

ब-रंग-ए-ख़्वाब सही सारी काएनात 'अकबर'

वजूद-ए-कुल को न अंदेशा-ए-गुमान में ला

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