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बदन से रिश्ता-ए-जाँ मो'तबर न था मेरा - अकबर हैदराबादी कविता - Darsaal

बदन से रिश्ता-ए-जाँ मो'तबर न था मेरा

बदन से रिश्ता-ए-जाँ मो'तबर न था मेरा

मैं जिस में रहता था शायद वो घर न था मेरा

क़रीब ही से वो गुज़रा मगर ख़बर न हुई

दिल इस तरह तो कभी बे-ख़बर न था मेरा

मैं मिस्ल-ए-सब्ज़ा-ए-बेगाना जिस चमन में रहा

वहाँ के गुल न थे मेरे समर न था मेरा

न रौशनी न हरारत ही दे सका मुझ को

पराई आग में कोई शरर न था मेरा

ज़मीं को रू-कश-ए-अफ़्लाक कर दिया जिस ने

हुनर था किस का अगर वो हुनर न था मेरा

कुछ और था मिरी तश्कील ओ इर्तिक़ा का सबब

मदार सिर्फ़ हवाओं पे गर न था मेरा

जो धूप दे गया मुझ को वो मेरा सूरज था

जो छाँव दे न सका वो शजर न था मेरा

नहीं कि मुझ से मिरे दिल ने बेवफ़ाई की

लहू से रब्त ही कुछ मो'तबर न था मेरा

पहुँच के जो सर-ए-मंज़िल बिछड़ गया मुझ से

वो हम-सफ़र था मगर हम-नज़र न था मेरा

इक आने वाले का मैं मुंतज़िर तो था 'अकबर'

हर आने वाला मगर मुंतज़िर न था मेरा

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