हवा सहला रही है उस के तन को
वो शोला अब शरारे दे रहा है
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हँसी में साग़र-ए-ज़र्रीं खनक खनक जाए
कई आवाज़ों की आवाज़ हूँ मैं
शरार-ए-संग जो इस शोर-ओ-शर से निकलेगा
कहा था उस ने मोहब्बत की आबरू रखना
कोई नादीदा उँगली उठ रही है
रह-ए-गुमाँ से अजब कारवाँ गुज़रते हैं
देखने को कोई तय्यार नहीं है भाई
गई गुज़री कहानी लग रही है
काफ़िर था मैं ख़ुदा का न मुंकिर दुआ का था
हरीफ़-ए-गर्दिश-ए-अय्याम तो बने हुए हैं
किसी को अपने सिवा कुछ नज़र नहीं आता