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तमाम आलम-ए-इम्काँ मिरे गुमान में है - अकबर हमीदी कविता - Darsaal

तमाम आलम-ए-इम्काँ मिरे गुमान में है

तमाम आलम-ए-इम्काँ मिरे गुमान में है

वो तीर हूँ जो अभी वक़्त की कमान में है

अभी वो सुब्ह नहीं है कि मेरा कश्फ़ खुले

वो हर्फ़-ए-शाम हूँ जो अजनबी ज़बान में है

इन आँगनों में हैं बरसों से एक से दिन रात

यही रुका हुआ लम्हा हर इक मकान में है

ये अक्स-ए-आब है या इस का दामन-ए-रंगीं

अजीब तरह की सुर्ख़ी सी बादबान में है

जहाँ दलील को पत्थर से तोड़ना ठहरे

वो शहर-ए-संग-दिलाँ सख़्त इम्तिहान में है

मुझे अदू की बक़ा भी अज़ीज़ है 'अकबर'

कि एक फूल सी दीवार दरमियान में है

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