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इक लम्हे ने जीवन-धारा रोक लिया - अकबर हमीदी कविता - Darsaal

इक लम्हे ने जीवन-धारा रोक लिया

इक लम्हे ने जीवन-धारा रोक लिया

जैसे किसी क़तरे ने दरिया रोक लिया

कितना मान गुमान है देने वाले को

दर्द दिया है और मुदावा रोक लिया

दोनों आलम मिल के जिस को रोकते हैं

मैं ने उस तूफ़ान को तन्हा रोक लिया

कभी कभी तो मुझ को यूँ महसूस हुआ

जैसे किसी ने मेरा हिस्सा रोक लिया

वो तो सब का दोस्त है मेरा क्या होगा

उस को तो बस जिस ने रोका रोक लिया

एक सी सारी सुब्हें एक सी शामें हैं

किस ने 'अकबर' बहता दरिया रोक लिया

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