दिल की गिर्हें कहाँ वो खोलता है
चाहतों में भी झूट बोलता है
संग-रेज़ों को अपने हाथों से
मोतियों की तरह वो रोलता है
कैसा मीज़ान-ए-अदल है उस का
फूल काँटों के साथ तौलता है
ऐसा वो डिप्लोमैट है 'अकबर'
ज़हर अमृत के साथ घोलता है
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नाम 'अकबर' तो मिरा माँ की दुआ ने रक्खा
शरार-ए-संग जो इस शोर-ओ-शर से निकलेगा
तिरा आँचल इशारे दे रहा है
कई आवाज़ों की आवाज़ हूँ मैं
देखने को कोई तय्यार नहीं है भाई
रात आई है बच्चों को पढ़ाने में लगा हूँ
तमाम आलम-ए-इम्काँ मिरे गुमान में है
हँसी में साग़र-ए-ज़र्रीं खनक खनक जाए
इक लम्हे ने जीवन-धारा रोक लिया
गई गुज़री कहानी लग रही है
काफ़िर था मैं ख़ुदा का न मुंकिर दुआ का था
अभी ज़मीन को हफ़्त आसमाँ बनाना है