वो लुत्फ़ अब हिन्दू मुसलमाँ में कहाँ
अग़्यार उन पर गुज़रते हैं अब ख़ंदा-ज़नाँ
झगड़ा कभी गाय का ज़बाँ की कभी बहस
है सख़्त मुज़िर ये नुस्ख़ा-ए-गाव-ज़बाँ
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दश्त-ए-ग़ुर्बत है अलालत भी है तन्हाई भी
हुए इस क़दर मोहज़्ज़ब कभी घर का मुँह न देखा
जो वक़्त-ए-ख़त्ना मैं चीख़ा तो नाई ने कहा हँस कर
आज आराइ-ए-शगेसू-ए-दोता होती है
दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
इस क़दर था खटमलों का चारपाई में हुजूम
उम्मीद टूटी हुई है मेरी जो दिल मिरा था वो मर चुका है
मय भी होटल में पियो चंदा भी दो मस्जिद में
जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श का शैदा होगा
डिनर से तुम को फ़ुर्सत कम यहाँ फ़ाक़े से कम ख़ाली
नाज़ क्या इस पे जो बदला है ज़माने ने तुम्हें
कहाँ वो अब लुत्फ़-ए-बाहमी है मोहब्बतों में बहुत कमी है