तकमील में उन उलूम के हो मसरूफ़
नेचर की जो ताक़तों को कर दें मकशूफ़
लेकिन तुम से उम्मीद क्या हो कि तुम्हें
ओहदा मतलूब है वतन है मालूफ़
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पड़ जाएँ मिरे जिस्म पे लाख आबले 'अकबर'
शेख़ ने नाक़ूस के सुर में जो ख़ुद ही तान ली
हवा-ए-शब भी है अम्बर-अफ़्शाँ उरूज भी है मह-ए-मुबीं का
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
आह जो दिल से निकाली जाएगी
नौकरों पर जो गुज़रती है मुझे मालूम है
एक काफ़िर पर तबीअत आ गई
क्या पूछते हो 'अकबर'-ए-शोरीदा-सर का हाल
नाज़ क्या इस पे जो बदला है ज़माने ने तुम्हें
हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
बे-तकल्लुफ़ बोसा-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा लीजिए
'इशरती' घर की मोहब्बत का मज़ा भूल गए