कह दो कि मैं ख़ुश हूँ रखूँ गर आप को ख़ुश
बिजली चमकाऊँ और करूँ भाप को ख़ुश
सीखूँ हर इल्म-ओ-फ़न मगर फ़र्ज़ ये है
हर हाल में रखूँ अपने माँ बाप को ख़ुश
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जो वक़्त-ए-ख़त्ना मैं चीख़ा तो नाई ने कहा हँस कर
ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता
जल्वा-ए-दरबार-ए-देहली
बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
सौ जान से हो जाऊँगा राज़ी मैं सज़ा पर
ये दिलबरी ये नाज़ ये अंदाज़ ये जमाल
रहता है इबादत में हमें मौत का खटका
आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते
अपने पहलू से वो ग़ैरों को उठा ही न सके
एक काफ़िर पर तबीअत आ गई