जज़्बा-ए-दिल ने मिरे तासीर दिखलाई तो है
ख़ुशी क्या हो जो मेरी बात वो बुत मान जाता है
इक बर्ग-ए-मुज़्महिल ने ये स्पीच में कहा
कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के
न बहते अश्क तो तासीर में सिवा होते
तश्बीह तिरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से
जो वक़्त-ए-ख़त्ना मैं चीख़ा तो नाई ने कहा हँस कर
साँस लेते हुए भी डरता हूँ
वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे
हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए
नई तहज़ीब
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो