इक बर्ग-ए-मुज़्महिल ने ये स्पीच में कहा
मौसम की कुछ ख़बर नहीं ऐ डालियो तुम्हें
अच्छा जवाब-ए-ख़ुश्क ये इक शाख़ ने दिया
मौसम से बा-ख़बर हों तो क्या जड़ को छोड़ दें
Habib Jalib
Allama Iqbal
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जब यास हुई तो आहों ने सीने से निकलना छोड़ दिया
डिनर से तुम को फ़ुर्सत कम यहाँ फ़ाक़े से कम ख़ाली
आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते
लगावट की अदा से उन का कहना पान हाज़िर है
लिपट भी जा न रुक 'अकबर' ग़ज़ब की ब्यूटी है
बी.ए भी पास हों मिले बी-बी भी दिल-पसंद
हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं
तदबीर करें तो इस में नाकामी हो
जब ग़म हुआ चढ़ा लीं दो बोतलें इकट्ठी
बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है
लुत्फ़ चाहो इक बुत-ए-नौ-ख़ेज़ को राज़ी करो
फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं