ग़फ़लत की हँसी से आह भरना अच्छा
अफ़आल-ए-मुज़िर से कुछ न करना अच्छा
'अकबर' ने सुना है अहल-ए-ग़ैरत से यही
जीना ज़िल्लत से हो तो मरना अच्छा
Ahmad Faraz
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हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए
कह दो कि मैं ख़ुश हूँ रखूँ गर आप को ख़ुश
अब तो है इश्क़-ए-बुताँ में ज़िंदगानी का मज़ा
वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे
भूलता जाता है यूरोप आसमानी बाप को
कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के
क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
ज़रूरी चीज़ है इक तजरबा भी ज़िंदगानी में
उन्हें भी जोश-ए-उल्फ़त हो तो लुत्फ़ उट्ठे मोहब्बत का
कुछ नहीं कार-ए-फ़लक हादसा-पाशी के सिवा
सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही
सब हो चुके हैं उस बुत-ए-काफ़िर-अदा के साथ