ये है कि झुकाता है मुख़ालिफ़ की भी गर्दन
सुन लो कि कोई शय नहीं एहसान से बेहतर
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मदरसा अलीगढ़
शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें
दरबार1911
तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है
दुख़्तर-ए-रज़ ने उठा रक्खी है आफ़त सर पर
अपनी गिरह से कुछ न मुझे आप दीजिए
हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए
धमका के बोसे लूँगा रुख़-ए-रश्क-ए-माह का
दर्द तो मौजूद है दिल में दवा हो या न हो
पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा
अब तो है इश्क़-ए-बुताँ में ज़िंदगानी का मज़ा
रंग-ए-शराब से मिरी निय्यत बदल गई