यहाँ की औरतों को इल्म की परवा नहीं बे-शक
मगर ये शौहरों से अपने बे-परवा नहीं होतीं
Habib Jalib
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हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
ग़फ़लत की हँसी से आह भरना अच्छा
बोले कि तुझ को दीन की इस्लाह फ़र्ज़ है
ख़त्म किया सबा ने रक़्स गुल पे निसार हो चुकी
हर एक को नौकरी नहीं मिलने की
रह-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत इन हसीनों से मैं क्या रक्खूँ
ज़िद है उन्हें पूरा मिरा अरमाँ न करेंगे
पड़ जाएँ मिरे जिस्म पे लाख आबले 'अकबर'
बूट दासन ने बनाया मैं ने इक मज़मून लिखा
फ़र्ज़ी लतीफ़ा
जो कहा मैं ने कि प्यार आता है मुझ को तुम पर
दिल मिरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला