वस्ल हो या फ़िराक़ हो 'अकबर'
जागना रात भर मुसीबत है
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इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है
शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें
रहता है इबादत में हमें मौत का खटका
हर एक को नौकरी नहीं मिलने की
उन्हें निगाह है अपने जमाल ही की तरफ़
मज़हब का हो क्यूँकर इल्म-ओ-अमल दिल ही नहीं भाई एक तरफ़
इलाही कैसी कैसी सूरतें तू ने बनाई हैं
इल्म ओ हिकमत में हो अगर ख़्वाहिश-ए-फ़ेम
बुतों के पहले बंदे थे मिसों के अब हुए ख़ादिम
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
अपने पहलू से वो ग़ैरों को उठा ही न सके
मोहब्बत का तुम से असर क्या कहूँ