तुम नाक चढ़ाते हो मिरी बात पे ऐ शैख़
खींचूँगी किसी रोज़ मैं अब कान तुम्हारे
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क्या ही रह रह के तबीअ'त मिरी घबराती है
सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही
क्या जानिए सय्यद थे हक़ आगाह कहाँ तक
जहाँ में हाल मिरा इस क़दर ज़बून हुआ
मेरी ये बेचैनियाँ और उन का कहना नाज़ से
ख़िलाफ़-ए-शरअ कभी शैख़ थूकता भी नहीं
आम-नामा
नाज़ क्या इस पे जो बदला है ज़माने ने तुम्हें
लुत्फ़ चाहो इक बुत-ए-नौ-ख़ेज़ को राज़ी करो
आई होगी किसी को हिज्र में मौत
कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के
लिपट भी जा न रुक 'अकबर' ग़ज़ब की ब्यूटी है