तय्यार थे नमाज़ पे हम सुन के ज़िक्र-ए-हूर
जल्वा बुतों का देख के नीयत बदल गई
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दरबार1911
ख़िलाफ़-ए-शरअ कभी शैख़ थूकता भी नहीं
बूट दासन ने बनाया मैं ने इक मज़मून लिखा
जब यास हुई तो आहों ने सीने से निकलना छोड़ दिया
भूलता जाता है यूरोप आसमानी बाप को
तकमील में उन उलूम के हो मसरूफ़
ख़ुशी है सब को कि ऑपरेशन में ख़ूब निश्तर ये चल रहा है
वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे
इलाही कैसी कैसी सूरतें तू ने बनाई हैं
बे-पर्दा नज़र आईं जो कल चंद बीबियाँ
तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है
सीने से लगाएँ तुम्हें अरमान यही है