तश्बीह तिरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से
होता है शगुफ़्ता मगर इतना नहीं होता
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क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
बूढ़ों के साथ लोग कहाँ तक वफ़ा करें
उन्हें निगाह है अपने जमाल ही की तरफ़
तुम नाक चढ़ाते हो मिरी बात पे ऐ शैख़
दावा बहुत बड़ा है रियाज़ी में आप को
डिनर से तुम को फ़ुर्सत कम यहाँ फ़ाक़े से कम ख़ाली
अकबर दबे नहीं किसी सुल्ताँ की फ़ौज से
जल्वा न हो मअ'नी का तो सूरत का असर क्या
कह दो कि मैं ख़ुश हूँ रखूँ गर आप को ख़ुश
क्या वो ख़्वाहिश कि जिसे दिल भी समझता हो हक़ीर
मिरा मोहताज होना तो मिरी हालत से ज़ाहिर है