तहसीन के लायक़ तिरा हर शेर है 'अकबर'
अहबाब करें बज़्म में अब वाह कहाँ तक
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ख़ुशी है सब को कि ऑपरेशन में ख़ूब निश्तर ये चल रहा है
जज़्बा-ए-दिल ने मिरे तासीर दिखलाई तो है
ख़िलाफ़-ए-शरअ कभी शैख़ थूकता भी नहीं
दिल-ए-मायूस में वो शोरिशें बरपा नहीं होतीं
शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें
लोग कहते हैं कि बद-नामी से बचना चाहिए
आशिक़ी का हो बुरा उस ने बिगाड़े सारे काम
नई तहज़ीब
क्या जानिए सय्यद थे हक़ आगाह कहाँ तक
अपनी गिरह से कुछ न मुझे आप दीजिए
दिल हो ख़राब दीन पे जो कुछ असर पड़े
लुत्फ़ चाहो इक बुत-ए-नौ-ख़ेज़ को राज़ी करो