सौ जान से हो जाऊँगा राज़ी मैं सज़ा पर
पहले वो मुझे अपना गुनहगार तो कर ले
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बोले कि तुझ को दीन की इस्लाह फ़र्ज़ है
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
उन्हें भी जोश-ए-उल्फ़त हो तो लुत्फ़ उट्ठे मोहब्बत का
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
तय्यार थे नमाज़ पे हम सुन के ज़िक्र-ए-हूर
यूँ मिरी तब्अ से होते हैं मआनी पैदा
रंग-ए-शराब से मिरी निय्यत बदल गई
इश्वा भी है शोख़ी भी तबस्सुम भी हया भी
जहाँ में हाल मिरा इस क़दर ज़बून हुआ
मिरा मोहताज होना तो मिरी हालत से ज़ाहिर है
हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
नई तहज़ीब से साक़ी ने ऐसी गर्म-जोशी की