रहमान के फ़रिश्ते गो हैं बहुत मुक़द्दस
शैतान ही की जानिब लेकिन मेजोरिटी है
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ये है कि झुकाता है मुख़ालिफ़ की भी गर्दन
बे-तकल्लुफ़ बोसा-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा लीजिए
कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के
क्या वो ख़्वाहिश कि जिसे दिल भी समझता हो हक़ीर
जल्वा न हो मअ'नी का तो सूरत का असर क्या
न रूह-ए-मज़हब न क़ल्ब-ए-आरिफ़ न शाइराना ज़बान बाक़ी
क्या पूछते हो 'अकबर'-ए-शोरीदा-सर का हाल
मेरी ये बेचैनियाँ और उन का कहना नाज़ से
मय भी होटल में पियो चंदा भी दो मस्जिद में
तश्बीह तिरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से
ये दिलबरी ये नाज़ ये अंदाज़ ये जमाल
एक काफ़िर पर तबीअत आ गई