पूछा 'अकबर' है आदमी कैसा
हँस के बोले वो आदमी ही नहीं
Gulzar
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चर्ख़ से कुछ उमीद थी ही नहीं
फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं
तरीक़-ए-इश्क़ में मुझ को कोई कामिल नहीं मिलता
क्या वो ख़्वाहिश कि जिसे दिल भी समझता हो हक़ीर
धमका के बोसे लूँगा रुख़-ए-रश्क-ए-माह का
मरऊब हो गए हैं विलायत से शैख़-जी
तिफ़्ल में बू आए क्या माँ बाप के अतवार की
अपने पहलू से वो ग़ैरों को उठा ही न सके
दुख़्तर-ए-रज़ ने उठा रक्खी है आफ़त सर पर
रहता है इबादत में हमें मौत का खटका
ज़रूरी चीज़ है इक तजरबा भी ज़िंदगानी में
मिरा मोहताज होना तो मिरी हालत से ज़ाहिर है