पड़ जाएँ मिरे जिस्म पे लाख आबले 'अकबर'
पढ़ कर जो कोई फूँक दे अप्रैल मई जून
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मदरसा अलीगढ़
मय भी होटल में पियो चंदा भी दो मस्जिद में
तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है
हल्क़े नहीं हैं ज़ुल्फ़ के हल्क़े हैं जाल के
भूलता जाता है यूरोप आसमानी बाप को
लोग कहते हैं कि बद-नामी से बचना चाहिए
मेहरबानी है अयादत को जो आते हैं मगर
एक काफ़िर पर तबीअत आ गई
बर्क़-ए-कलीसा
कुछ नहीं कार-ए-फ़लक हादसा-पाशी के सिवा
वो लुत्फ़ अब हिन्दू मुसलमाँ में कहाँ
पूछा 'अकबर' है आदमी कैसा