नाज़ क्या इस पे जो बदला है ज़माने ने तुम्हें
मर्द हैं वो जो ज़माने को बदल देते हैं
Anwar Masood
Allama Iqbal
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Habib Jalib
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सौ जान से हो जाऊँगा राज़ी मैं सज़ा पर
तुम्हारे वाज़ में तासीर तो है हज़रत-ए-वाइज़
पब्लिक में ज़रा हाथ मिला लीजिए मुझ से
मैं भी ग्रेजुएट हूँ तुम भी ग्रेजुएट
शैख़ की दावत में मय का काम क्या
उन्हें निगाह है अपने जमाल ही की तरफ़
रह-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत इन हसीनों से मैं क्या रक्खूँ
एक काफ़िर पर तबीअत आ गई
अगर मज़हब ख़लल-अंदाज़ है मुल्की मक़ासिद में
लोग कहते हैं कि बद-नामी से बचना चाहिए
दर्द तो मौजूद है दिल में दवा हो या न हो
ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता