मैं भी ग्रेजुएट हूँ तुम भी ग्रेजुएट
इल्मी मुबाहिसे हों ज़रा पास आ के लेट
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सीने से लगाएँ तुम्हें अरमान यही है
पड़ जाएँ मिरे जिस्म पे लाख आबले 'अकबर'
बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी
धमका के बोसे लूँगा रुख़-ए-रश्क-ए-माह का
रहमान के फ़रिश्ते गो हैं बहुत मुक़द्दस
फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं
फिर गई आप की दो दिन में तबीअ'त कैसी
मेहरबानी है अयादत को जो आते हैं मगर
एक काफ़िर पर तबीअत आ गई
जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श का शैदा होगा
मिस सीमीं बदन
नौकरों पर जो गुज़रती है मुझे मालूम है