ख़िलाफ़-ए-शरअ कभी शैख़ थूकता भी नहीं
मगर अंधेरे उजाले में चूकता भी नहीं
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बोले कि तुझ को दीन की इस्लाह फ़र्ज़ है
तअल्लुक़ आशिक़ ओ माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
तुम्हारे वाज़ में तासीर तो है हज़रत-ए-वाइज़
ज़रूरी चीज़ है इक तजरबा भी ज़िंदगानी में
डाल दे जान मआ'नी में वो उर्दू ये है
फिर गई आप की दो दिन में तबीअ'त कैसी
न रूह-ए-मज़हब न क़ल्ब-ए-आरिफ़ न शाइराना ज़बान बाक़ी
दश्त-ए-ग़ुर्बत है अलालत भी है तन्हाई भी
बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है
जवानी की दुआ लड़कों को ना-हक़ लोग देते हैं
तहसीन के लायक़ तिरा हर शेर है 'अकबर'
आह जो दिल से निकाली जाएगी