जल्वा न हो मअ'नी का तो सूरत का असर क्या
बुलबुल गुल-ए-तस्वीर का शैदा नहीं होता
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जल्वा-ए-दरबार-ए-देहली
समझ में साफ़ आ जाए फ़साहत इस को कहते हैं
आह जो दिल से निकाली जाएगी
तकमील में उन उलूम के हो मसरूफ़
वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे
इस क़दर था खटमलों का चारपाई में हुजूम
बे-पर्दा नज़र आईं जो कल चंद बीबियाँ
दिल-ए-मायूस में वो शोरिशें बरपा नहीं होतीं
वो लुत्फ़ अब हिन्दू मुसलमाँ में कहाँ
पब्लिक में ज़रा हाथ मिला लीजिए मुझ से
ग़फ़लत की हँसी से आह भरना अच्छा
कह दो कि मैं ख़ुश हूँ रखूँ गर आप को ख़ुश