इस क़दर था खटमलों का चारपाई में हुजूम
वस्ल का दिल से मिरे अरमान रुख़्सत हो गया
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जान शायद फ़रिश्ते छोड़ भी दें
ख़ुशी क्या हो जो मेरी बात वो बुत मान जाता है
हल्क़े नहीं हैं ज़ुल्फ़ के हल्क़े हैं जाल के
अपनी गिरह से कुछ न मुझे आप दीजिए
नई तहज़ीब से साक़ी ने ऐसी गर्म-जोशी की
इक बर्ग-ए-मुज़्महिल ने ये स्पीच में कहा
इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है
नौकरों पर जो गुज़रती है मुझे मालूम है
ख़िलाफ़-ए-शरअ कभी शैख़ थूकता भी नहीं
कोट और पतलून जब पहना तो मिस्टर बन गया
वज़्न अब उन का मुअ'य्यन नहीं हो सकता कुछ
हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए