हुए इस क़दर मोहज़्ज़ब कभी घर का मुँह न देखा
कटी उम्र होटलों में मरे अस्पताल जा कर
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दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के
पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा
मेहरबानी है अयादत को जो आते हैं मगर
हर चंद बगूला मुज़्तर है इक जोश तो उस के अंदर है
बे-पर्दा नज़र आईं जो कल चंद बीबियाँ
धमका के बोसे लूँगा रुख़-ए-रश्क-ए-माह का
इश्वा भी है शोख़ी भी तबस्सुम भी हया भी
मअ'नी को भुला देती है सूरत है तो ये है
जवानी की दुआ लड़कों को ना-हक़ लोग देते हैं
सीने से लगाएँ तुम्हें अरमान यही है
अपनी गिरह से कुछ न मुझे आप दीजिए