ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता
आँख उन से जो मिलती है तो क्या क्या नहीं होता
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खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही
जज़्बा-ए-दिल ने मिरे तासीर दिखलाई तो है
इक बोसा दीजिए मिरा ईमान लीजिए
अपनी गिरह से कुछ न मुझे आप दीजिए
बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी
मदरसा अलीगढ़
चर्ख़ से कुछ उमीद थी ही नहीं
डाल दे जान मआ'नी में वो उर्दू ये है
बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है
जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श का शैदा होगा