एक काफ़िर पर तबीअत आ गई
पारसाई पर भी आफ़त आ गई
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बोले कि तुझ को दीन की इस्लाह फ़र्ज़ है
दिल-ए-मायूस में वो शोरिशें बरपा नहीं होतीं
कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के
तरीक़-ए-इश्क़ में मुझ को कोई कामिल नहीं मिलता
लगावट की अदा से उन का कहना पान हाज़िर है
हूँ मैं परवाना मगर शम्अ तो हो रात तो हो
ख़त्म किया सबा ने रक़्स गुल पे निसार हो चुकी
मेरी तक़दीर मुआफ़िक़ न थी तदबीर के साथ
बूढ़ों के साथ लोग कहाँ तक वफ़ा करें
जवानी की दुआ लड़कों को ना-हक़ लोग देते हैं
रहता है इबादत में हमें मौत का खटका
चर्ख़ से कुछ उमीद थी ही नहीं