दुख़्तर-ए-रज़ ने उठा रक्खी है आफ़त सर पर
ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ
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जल्वा अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार का
क्या जानिए सय्यद थे हक़ आगाह कहाँ तक
रुस्वा वो हुआ जो मस्त पैमाना हुआ
अक़्ल में जो घिर गया ला-इंतिहा क्यूँकर हुआ
ख़ुशी क्या हो जो मेरी बात वो बुत मान जाता है
बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी
ख़ुदा अलीगढ़ की मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे
वज़्न अब उन का मुअ'य्यन नहीं हो सकता कुछ
मिल गया शरअ से शराब का रंग
दावा बहुत बड़ा है रियाज़ी में आप को
जान शायद फ़रिश्ते छोड़ भी दें
फिर गई आप की दो दिन में तबीअ'त कैसी