डिनर से तुम को फ़ुर्सत कम यहाँ फ़ाक़े से कम ख़ाली
चलो बस हो चुका मिलना न तुम ख़ाली न हम ख़ाली
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मदरसा अलीगढ़
लोग कहते हैं कि बद-नामी से बचना चाहिए
जब मैं कहता हूँ कि या अल्लाह मेरा हाल देख
दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें
तदबीर करें तो इस में नाकामी हो
कहाँ वो अब लुत्फ़-ए-बाहमी है मोहब्बतों में बहुत कमी है
तश्बीह तिरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से
अकबर दबे नहीं किसी सुल्ताँ की फ़ौज से
इश्वा भी है शोख़ी भी तबस्सुम भी हया भी
हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही