कॉलेज से आ रही है सदा पास पास की
ओहदों से आ रही है सदा दूर दूर की
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कोट और पतलून जब पहना तो मिस्टर बन गया
तय्यार थे नमाज़ पे हम सुन के ज़िक्र-ए-हूर
हर एक को नौकरी नहीं मिलने की
ज़िद है उन्हें पूरा मिरा अरमाँ न करेंगे
पब्लिक में ज़रा हाथ मिला लीजिए मुझ से
जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श का शैदा होगा
तकमील में उन उलूम के हो मसरूफ़
ख़ुदा से माँग जो कुछ माँगना है ऐ 'अकबर'
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
लुत्फ़ चाहो इक बुत-ए-नौ-ख़ेज़ को राज़ी करो
तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है
जिस तरफ़ उठ गई हैं आहें हैं