असर ये तेरे अन्फ़ास-ए-मसीहाई का है 'अकबर'
इलाहाबाद से लंगड़ा चला लाहौर तक पहुँचा
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रह-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत इन हसीनों से मैं क्या रक्खूँ
ग़ज़ब है वो ज़िद्दी बड़े हो गए
तिफ़्ल में बू आए क्या माँ बाप के अतवार की
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
जो वक़्त-ए-ख़त्ना मैं चीख़ा तो नाई ने कहा हँस कर
मय भी होटल में पियो चंदा भी दो मस्जिद में
ग़म-ख़ाना-ए-जहाँ में वक़अत ही क्या हमारी
जवानी की है आमद शर्म से झुक सकती हैं आँखें
लगावट की अदा से उन का कहना पान हाज़िर है
शेख़ ने नाक़ूस के सुर में जो ख़ुद ही तान ली
बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी
पड़ जाएँ मिरे जिस्म पे लाख आबले 'अकबर'