आई होगी किसी को हिज्र में मौत
मुझ को तो नींद भी नहीं आती
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सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही
इलाही कैसी कैसी सूरतें तू ने बनाई हैं
जो वक़्त-ए-ख़त्ना मैं चीख़ा तो नाई ने कहा हँस कर
हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं
आशिक़ी का हो बुरा उस ने बिगाड़े सारे काम
दरबार1911
जवानी की दुआ लड़कों को ना-हक़ लोग देते हैं
ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता
ख़िलाफ़-ए-शरअ कभी शैख़ थूकता भी नहीं
किस नाज़ से कहते हैं वो झुँझला के शब-ए-वस्ल
अपने पहलू से वो ग़ैरों को उठा ही न सके
तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है