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मिल गया शरअ से शराब का रंग - अकबर इलाहाबादी कविता - Darsaal

मिल गया शरअ से शराब का रंग

मिल गया शरअ से शराब का रंग

ख़ूब बदला ग़रज़ जनाब का रंग

चल दिए शैख़ सुब्ह से पहले

उड़ चला था ज़रा ख़िज़ाब का रंग

पाई है तुम ने चाँद सी सूरत

आसमानी रहे नक़ाब का रंग

सुब्ह को आप हैं गुलाब का फूल

दोपहर को है आफ़्ताब का रंग

लाख जानें निसार हैं इस पर

दीदनी है तिरे शबाब का रंग

टिकटिकी बंध गई है बूढ़ों की

दीदनी है तिरे शबाब का रंग

जोश आता है होश जाता है

दीदनी है तिरे शबाब का रंग

रिंद-ए-आली-मक़ाम है 'अकबर'

बू है तक़्वा की और शराब का रंग

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