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मेरी तक़दीर मुआफ़िक़ न थी तदबीर के साथ - अकबर इलाहाबादी कविता - Darsaal

मेरी तक़दीर मुआफ़िक़ न थी तदबीर के साथ

मेरी तक़दीर मुआफ़िक़ न थी तदबीर के साथ

खुल गई आँख निगहबाँ की भी ज़ंजीर के साथ

खुल गया मुसहफ़-ए-रुख़्सार-ए-बुतान-ए-मग़रिब

हो गए शैख़ भी हाज़िर नई तफ़्सीर के साथ

ना-तवानी मिरी देखी तो मुसव्विर ने कहा

डर है तुम भी कहीं खिंच आओ न तस्वीर के साथ

हो गया ताइर-ए-दिल सैद-ए-निगाह-ए-बे-क़स्द

सई-ए-बाज़ू की यहाँ शर्त न थी तीर के साथ

लहज़ा लहज़ा है तरक़्क़ी पे तिरा हुस्न-ओ-जमाल

जिस को शक हो तुझे देखे तिरी तस्वीर के साथ

ब'अद सय्यद के मैं कॉलेज का करूँ क्या दर्शन

अब मोहब्बत न रही इस बुत-ए-बे-पीर के साथ

मैं हूँ क्या चीज़ जो उस तर्ज़ पे जाऊँ 'अकबर'

'नासिख़' ओ 'ज़ौक़' भी जब चल न सके 'मीर' के साथ

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