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जल्वा अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार का - अकबर इलाहाबादी कविता - Darsaal

जल्वा अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार का

जल्वा अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार का

क्या दिल-कुशा ये सीन है फ़स्ल-ए-बहार का

नाज़ाँ हैं जोश-ए-हुस्न पे गुल-हा-ए-दिल-फ़रेब

जोबन दिखा रहा है ये आलम उभार का

हैं दीदनी बनफ़शा ओ सुम्बुल के पेच ओ ताब

नक़्शा खींचा हुआ है ख़त-ओ-ज़ुल्फ़-ए-यार का

सब्ज़ा है या ये आब-ए-ज़मुर्रद की मौज है

शबनम है बहर या गुहर-ए-आबदार का

मुर्ग़ान-ए-बाग़ ज़मज़मा-संजी में महव हैं

और नाच हो रहा है नसीम-ए-बहार का

परवाज़ में हैं तीतरियाँ शाद ओ चुस्त ओ मस्त

ज़ेब-ए-बदन किए हुए ख़िलअत बहार का

मौज-ए-हवा ओ ज़मज़मा-ए-अंदलीब-ए-मस्त

इक साज़-ए-दिल-नवाज़ है मिज़राब-ओ-तार का

अबर-ए-तनुक ने रौनक़-ए-मौसम बढ़ाई है

ग़ाज़ा बना है रू-ए-उरूस-ए-बहार का

अफ़्सोस इस समाँ में भी 'अकबर' उदास है

सुहान-ए-रूह हिज्र है इक गुल-इज़ार का

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