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बे-तकल्लुफ़ बोसा-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा लीजिए - अकबर इलाहाबादी कविता - Darsaal

बे-तकल्लुफ़ बोसा-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा लीजिए

बे-तकल्लुफ़ बोसा-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा लीजिए

नक़्द-ए-दिल मौजूद है फिर क्यूँ न सौदा लीजिए

दिल तो पहले ले चुके अब जान के ख़्वाहाँ हैं आप

इस में भी मुझ को नहीं इंकार अच्छा लीजिए

पाँव पकड़ कर कहती है ज़ंजीर-ए-ज़िंदाँ में रहो

वहशत-ए-दिल का है ईमा राह-ए-सहरा लीजिए

ग़ैर को तो कर के ज़िद करते हैं खाने में शरीक

मुझ से कहते हैं अगर कुछ भूक हो खा लीजिए

ख़ुश-नुमा चीज़ें हैं बाज़ार-ए-जहाँ में बे-शुमार

एक नक़द-ए-दिल से या-रब मोल क्या क्या लीजिए

कुश्ता आख़िर आतिश-ए-फ़ुर्क़त से होना है मुझे

और चंदे सूरत-ए-सीमाब तड़पा लीजिए

फ़स्ल-ए-गुल के आते ही 'अकबर' हुए बेहोश आप

खोलिए आँखों को साहिब जाम-ए-सहबा लीजिए

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