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अपने पहलू से वो ग़ैरों को उठा ही न सके - अकबर इलाहाबादी कविता - Darsaal

अपने पहलू से वो ग़ैरों को उठा ही न सके

अपने पहलू से वो ग़ैरों को उठा ही न सके

उन को हम क़िस्सा-ए-ग़म अपना सुना ही न सके

ज़ेहन मेरा वो क़यामत कि दो-आलम पे मुहीत

आप ऐसे कि मिरे ज़ेहन में आ ही न सके

देख लेते जो उन्हें तो मुझे रखते म'अज़ूर

शैख़-साहिब मगर उस बज़्म में जा ही न सके

अक़्ल महँगी है बहुत इश्क़ ख़िलाफ़-ए-तहज़ीब

दिल को इस अहद में हम काम में ला ही न सके

हम तो ख़ुद चाहते थे चैन से बैठें कोई दम

आप की याद मगर दिल से भुला ही न सके

इश्क़ कामिल है उसी का कि पतंगों की तरह

ताब नज़्ज़ारा-ए-माशूक़ की ला ही न सके

दाम-ए-हस्ती की भी तरकीब अजब रक्खी है

जो फँसे उस में वो फिर जान बचा ही न सके

मज़हर-ए-जल्वा-ए-जानाँ है हर इक शय 'अकबर'

बे-अदब आँख किसी सम्त उठा ही न सके

ऐसी मंतिक़ से तो दीवानगी बेहतर 'अकबर'

कि जो ख़ालिक़ की तरफ़ दिल को झुका ही न सके

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