Ghazals of Akbar Allahabadi
नाम | अकबर इलाहाबादी |
---|---|
अंग्रेज़ी नाम | Akbar Allahabadi |
जन्म की तारीख | 1846 |
मौत की तिथि | 1921 |
जन्म स्थान | Allahabad |
ज़िद है उन्हें पूरा मिरा अरमाँ न करेंगे
यूँ मिरी तब्अ से होते हैं मआनी पैदा
ये सुस्त है तो फिर क्या वो तेज़ है तो फिर क्या
वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे
वज़्न अब उन का मुअ'य्यन नहीं हो सकता कुछ
उन्हें निगाह है अपने जमाल ही की तरफ़
उम्मीद टूटी हुई है मेरी जो दिल मिरा था वो मर चुका है
तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है
तरीक़-ए-इश्क़ में मुझ को कोई कामिल नहीं मिलता
शेख़ ने नाक़ूस के सुर में जो ख़ुद ही तान ली
साँस लेते हुए भी डरता हूँ
सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही
रंग-ए-शराब से मिरी निय्यत बदल गई
फिर गई आप की दो दिन में तबीअ'त कैसी
नई तहज़ीब से साक़ी ने ऐसी गर्म-जोशी की
न रूह-ए-मज़हब न क़ल्ब-ए-आरिफ़ न शाइराना ज़बान बाक़ी
न बहते अश्क तो तासीर में सिवा होते
मिल गया शरअ से शराब का रंग
मेरी तक़दीर मुआफ़िक़ न थी तदबीर के साथ
मेरे हवास-ए-इश्क़ में क्या कम हैं मुंतशिर
मेहरबानी है अयादत को जो आते हैं मगर
मज़हब का हो क्यूँकर इल्म-ओ-अमल दिल ही नहीं भाई एक तरफ़
मअ'नी को भुला देती है सूरत है तो ये है
लुत्फ़ चाहो इक बुत-ए-नौ-ख़ेज़ को राज़ी करो
क्या जानिए सय्यद थे हक़ आगाह कहाँ तक
क्या ही रह रह के तबीअ'त मिरी घबराती है
ख़ुशी क्या हो जो मेरी बात वो बुत मान जाता है
ख़ुशी है सब को कि ऑपरेशन में ख़ूब निश्तर ये चल रहा है
ख़ुदा अलीगढ़ की मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे
ख़त्म किया सबा ने रक़्स गुल पे निसार हो चुकी