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ये शौक़ सारे यक़ीन-ओ-गुमाँ से पहले था - अकबर अली खान अर्शी जादह कविता - Darsaal

ये शौक़ सारे यक़ीन-ओ-गुमाँ से पहले था

ये शौक़ सारे यक़ीन-ओ-गुमाँ से पहले था

मैं सज्दा-रेज़ नवा-ए-अज़ाँ से पहले था

हैं काएनात की सब वुसअ'तें उसी की गवाह

जो हर ज़मीन से हर आसमाँ से पहले था

सितम है उस से कहूँ जिस्म-ओ-जाँ पे क्या गुज़री

कि जिस को इल्म मिरे जिस्म-ओ-जाँ से पहले था

उसी ने दी है वही एक दिन बुझाएगा प्यास

जो सोज़-ए-सीना-ए-ओ-अश्क-ए-रवाँ से पहले था

उसी से थी और उसी से रहेगी अपनी तलब

जो आरज़ू की हर इक ईन-ओ-आँ से पहले था

वो सुन रहा है मिरी बे-ज़बानियों की ज़बाँ

जो हर्फ़-ओ-सौत-ओ-सदा-ओ-ज़बाँ से पहले था

ये हम्द हुस्न-ए-बयाँ है मिरा कि इज्ज़-ए-सुख़न

हर एक वस्फ़ जब उस का बयाँ से पहले था

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