सिखा सकी न जो आदाब-ए-मय वो ख़ू क्या थी
सिखा सकी न जो आदाब-ए-मय वो ख़ू क्या थी
जो ये न था तो फिर इस दर्जा हाव-हू क्या थी
जो बार-ए-दोश रहा सर वो कब था शोरीदा
बहा न जिस से लहू वो रग-ए-गुलू क्या थी
फिर एक ज़ख़्म-ए-कुशादा जो दिल को याद आ जाए
वो लज़्ज़त-ओ-ख़लिश-ए-सोज़न-ओ-रफ़ू क्या थी
जो इज़्न-ए-आम न था वालियान-ए-मय-ख़ाना
ये सब नुमाइश-ए-पैमाना-ओ-सुबू क्या थी
अगर निगाह-ए-जहाँ के शुमार में न थे हम
तो फिर हमारी ये शोहरत भी चार-सू क्या थी
न ख़ून-ए-शब था न शब-ख़ूँ ये मान लें लेकिन
शफ़क़ तुलू-ए-सहर को लहू लहू क्या थी
जब आ रही हैं बहारें लिए पयाम-ए-जुनूँ
ये पैरहन को मिरे हाजत-ए-रफ़ू क्या थी
तुम्हें शिकायत-ए-अहल-ए-वतन है क्यूँ साहब
ख़ुद अपने शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या थी
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