वही बे-बाकी-ए-उश्शाक़ है दरकार अब भी
वही बे-बाकी-ए-उश्शाक़ है दरकार अब भी
है वही सिलसिला-ए-आतिश-ओ-गुलज़ार अब भी
अब भी मौजूद है वो बैअत-ए-फ़ासिक़ का सवाल
और मतलूब है वो जुरअत-ए-इंकार अब भी
हैं कहाँ इश्क़ में घर-बार लुटाने वाले
ख़ू-ए-ईसार से मग़लूब हैं अंसार अब भी
कोई यूसुफ़ तो ज़माना करे पैदा 'अजमल'
नज़र आ सकती है वो गर्मी-ए-बाज़ार अब भी
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