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किसी के हिज्र में जीना मुहाल हो गया है - अजमल सिराज कविता - Darsaal

किसी के हिज्र में जीना मुहाल हो गया है

किसी के हिज्र में जीना मुहाल हो गया है

किसे बताएँ हमारा जो हाल हो गया है

कहीं गिरा है न रौंदा गया है दिल फिर भी

शिकस्ता हो गया है पाएमाल हो गया है

सहर जो आई है शब के तमाम होने पर

तो इस में कौन सा ऐसा कमाल हो गया है

कोई भी चीज़ सलामत नहीं मगर ये दिल

शिकस्तगी में जो अपनी मिसाल हो गया है

उधर चराग़ जले हैं किसी दरीचे में

इधर वज़ीफ़ा-ए-दिल बहाल हो गया है

हया का रंग जो आया है उस के चेहरे पर

ये रंग हासिल-ए-शाम-ए-विसाल हो गया है

मसाफ़त-ए-शब-ए-हिज्राँ में चाँद भी 'अजमल'

थकन से चूर ग़मों से निढाल हो गया है

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