बोल पड़ता तो मिरी बात मिरी ही रहती
ख़ामुशी ने हैं दिए सब को फ़साने क्या क्या
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कभी ख़ौफ़ था तिरे हिज्र का कभी आरज़ू के ज़वाल का
इतना करम इतनी अता फिर हो न हो
अलग अलग तासीरें इन की, अश्कों के जो धारे हैं
आस पे तेरी बिखरा देता हूँ कमरे की सब चीज़ें
ख़त जो तेरे नाम लिखा, तकिए के नीचे रखता हूँ
दुखे दिलों पे जो पड़ जाए वो तबीब नज़र
हर एक सुब्ह वज़ू करती हैं मिरी आँखें
रो रो के बयाँ करते फिरो रंज-ओ-अलम ख़ूब
दिल तो सादा है तेरी हर बात को सच्चा मानता है
बाज़ार में इक चीज़ नहिं काम की मेरे
क्या क्या न पढ़ा इस मकतब में, कितने ही हुनर सीखे हैं यहाँ