बाज़ार में इक चीज़ नहिं काम की मेरे
ये शहर मिरी जेब का रखता है भरम ख़ूब
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सब ने देखा मुझे उठता हुआ मेरे घर से
हर एक सुब्ह वज़ू करती हैं मिरी आँखें
दुखे दिलों पे जो पड़ जाए वो तबीब नज़र
इतराता गरेबाँ पर था बहुत, रह-ए-इश्क़ में कब का चाक हुआ
कभी ख़ौफ़ था तिरे हिज्र का कभी आरज़ू के ज़वाल का
अलग अलग तासीरें इन की, अश्कों के जो धारे हैं
ख़त जो तेरे नाम लिखा, तकिए के नीचे रखता हूँ
जिस दिन से गया वो जान-ए-ग़ज़ल हर मिसरे की सूरत बिगड़ी
रो रो के बयाँ करते फिरो रंज-ओ-अलम ख़ूब
आस पे तेरी बिखरा देता हूँ कमरे की सब चीज़ें
ये ही हैं दिन, बाग़ी अगर बनना है बन