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आज़ार बहुत लज़्ज़त-ए-आज़ार बहुत है - अजमल अजमली कविता - Darsaal

आज़ार बहुत लज़्ज़त-ए-आज़ार बहुत है

आज़ार बहुत लज़्ज़त-ए-आज़ार बहुत है

दिल दस्त-ए-सितम-गर का तलबगार बहुत है

इक़रार की मंज़िल भी ज़रूर आएगी इक दिन

इस वक़्त तो बस लज़्ज़त-ए-इंकार बहुत है

यारान-ए-सफ़र कोई दवा ढूँड के लाओ

इंसान मिरे दौर का बीमार बहुत है

हाँ देखियो इरफ़ान-ए-बग़ावत न झुलस जाए

मंज़र मिरी दुनिया का शरर-बार बहुत है

हम घर की पनाहों से जो निकले तो ये जाना

हंगामा पस-ए-साया-ए-दीवार बहुत है

क़ातिल की इनायत का मज़ा और है वर्ना

जाँ लेने को ये साँस की तलवार बहुत है

क्या लोग हैं ये सोच के बैठे हूँ घरों में

बस ज़ुल्म से बे-ज़ारी का इज़हार बहुत है

हालात-ए-ज़माना से लरज़ जाते हैं 'अजमल'

यूँ है कि ज़माने से हमें प्यार बहुत है

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