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हंगामा क्यूँ बपा है ज़रा बाम पर से देख - आजिज़ मातवी कविता - Darsaal

हंगामा क्यूँ बपा है ज़रा बाम पर से देख

हंगामा क्यूँ बपा है ज़रा बाम पर से देख

शोले बुलंद होते हैं ये किस के घर से देख

बिखरें न ये ज़मीं पे कहीं चश्म-ए-तर से देख

पलकों तक आ गए हैं जो चल कर जिगर से देख

ऐ दोस्त पैरवी-ए-कलीमाना है अबस

जल्वों को उस के तू निगहा-ए-मो'तबर से देख

यूँ सर उठा के देख न तू जानिब-ए-फ़लक

ये ताज-ए-तमकनत न गिरे तेरे सर से देख

इस तरह है ग़मों को मिरे दिल से रस्म-ओ-राह

जिस तरह रब्त रखते हैं साए शजर के देख

अपनी नज़र से देख तही-दस्ती-ए-सदफ़

दरिया का ज़र्फ़ क्या है ये चश्म-ए-गुहर से देख

इंसान हादसात से कितना क़रीब है

तू भी ज़रा निकल के कभी अपने घर से देख

'आजिज़' ये क़ौल अपने बुज़ुर्गों का याद रख

रस्ता कभी न छोड़ना दुश्मन के डर से देख

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